द्वारिका में एक ब्राह्मण रहता था, उसके स्त्री के पुत्र हुआ और वह होते ही मर गया। ब्राह्मण मृत पुत्र की लाश को लेकर राज्यद्वार पर आया और उसे वहां रख कर रोते हुए बोलने लगा -‘ब्राह्मणद्रोही, शठबुद्धि, लोभी, विषयी, क्षत्रियाधम राजा के कर्मदोष से ही मेरा बालक मर गया है। क्योंकि-
हिंसाविहारं नृपतिं दु:शीलमजितेन्द्रियम।
प्रजा भजन्त्य: सीदन्ति दरिद्रा नित्यदु:किया:॥ (श्रीमद्भ० 10/89/25)
‘जब राजा हिंसा में रत, दुश्चरित और अजितेन्द्रिय होता है, तभी प्रजा को दरिद्रता और अनेक प्रकार के दुखों से नित्य पीड़ित रहना पड़ता है।’ यों कहकर लाश को वहीं छोड़कर वह ब्राह्मण चला गया। इस प्रकार उस ब्राह्मण के आठ बालक मर गये और वह उनकी लाशों को राजद्वार पर छोड़ गया। यादवों ने अनेक उपाय भी किये परंतु कोई भी उपाय नहीं चला। नवें पुत्र की लाश को लेकर जिस दिन ब्राह्मण राज्यसभा में आया, उस दिन वहां अर्जुन आए हुए थे। अर्जुन ने कहा–‘देव! आप क्यों रो रहे हैं, क्या यहां कोई भी वीर क्षत्रीय नहीं है, जो आप ब्राह्मणों को पत्र शौक से बचावे, आपके पुत्रों की रक्षा मैं करूंगा और यदि न कर सकूंगा तो स्वयं अग्नि में जल जाऊंगा।’ब्राह्मण ने कहा– ‘भगवान संकर्षण, भगवान वासुदेव, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध नहीं बचा सके, तो तुम कैसे बचाओगे?’ अर्जुन ने अभिमान से कहा, ‘मैं संकर्षण, कृष्ण, प्रद्युम्न या अनिरुद्ध नहीं हूं।* मैं धनुष धारी अर्जुन हूं, मृत्यु को भी जीतकर बालक को ले आऊंगा।’ भगवान कुछ नहीं बोले, उन्होंने मुस्कुरा दिया और मन ही मन भविष्य की लीला का प्रोग्राम भी निश्चित कर लिया। फिर ब्राह्मणी के बालक-प्रसव का समय आया। समाचार मिलते ही अर्जुन ने हाथ पैर धोए और धनुष चढ़ाकर दिव्य अस्त्र शस्त्र का स्मरण किया और ब्राह्मण के घर को बाणों से ढक दिया। ऐसा पिंजरा सा बना दिया कि उनके अंदर किसी का भी प्रवेश नहीं हो सकता। हरि की लीला विचित्र है, ब्राह्मणीके बालक हुआ परंतु वह उसी क्षण अदृश्य हो गया। ब्राह्मण दुखी हुआ और श्रीकृष्ण के पास जाकर कहने लगा मेरी मूर्खता का भी कोई ठिकाना है? जो मैंने उस कायर अर्जुन की आत्मप्रशंसा पूर्ण बातों का विश्वास कर लिया। मिथ्यावादी और अपने ही मुख से अपने पराक्रम और धनुष की झूठी प्रशंसा करने वाले अर्जुन को धिक्कार है?! अर्जुन पास ही बैठे थे। अब भी उसमें अहंकार था। वे भगवान से कुछ न बोले और तुरंत अपनी योग विद्या से यमपुरी गये। वहां ब्राह्मण पुत्र को ना देख कर अग्नि, इंद्र, चंद्रमा, वायु, वरुण आदि लोकपालों के लोकों में तथा अतल, रसातल तथा स्वर्ग के ऊपर के सातों लोकों में तथा और अनेक स्थानों में घूमे, परंतु कहीं बालक का पता नहीं लगा, तब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वे चिता बनाकर उसमें जलने को तैयार हो गए। अब भगवान से नहीं रहा गया। उन्होंने जाकर अर्जुन को रोक लिया और कहने लगे–
मित्र! यों अपने को अशक्त समझ कर अपना अनादर न करो, मैं तुम्हें ब्राह्मण के मरे हुए दसों पुत्रों को दिखाऊंगा। इससे समस्त विश्व में हमारी कीर्ति छा जाएगी।’ भगवान ने उसको साथ लिया और दिव्य रथ पर सवार हो पश्चिम की ओर चलें। पर्वतों से युक्त सातों द्वीप और समुद्रों को पारकर वह अंधकारमय प्रदेश में जा पहुंचे। वहां बहुत अंधकार होने के कारण भगवान ने अपना सुदर्शन चक्र आगे कर दिया, उसके प्रकाश में रथ आगे बढ़ा। अंधकार के उस पार पहुंचकर अर्जुन ने देखा की अपार सूर्यौंकी-सी महान ज्योति चारों तरफ फैली रही है। इसके बाद वह एक अनंत जल के समुद्र में घुसे, वहां देखा कि एक अत्यंत प्रकाशयुक्त मंदिर है, उसमें अत्यंत प्रकाशमयी मणियां जड़ी हैं और सोने के हजारों खम्भे हैं। मंदिर के अंदर श्वेत पर्वत के समान अत्यंत अद्भुत शेषनाग जी हैं। उनके मस्तकों पर स्थित महामणियों की प्रभा से प्रकाशित हुए हजार फण फैले हुए हैं। उनके दो हजार नेत्र हैं और गले तथा जीभों का वर्ण नीला है। उन शेष जी की शय्या पर विभु, महानुभाव पुरुषोत्तमोत्तम सुख से लेट रहे हैं। उनके नव-नील-नीरद शरीर पर पितांबर बिजली के सदृश शोभित हो रहा हैं। भगवान के सुंदर आठ भुजाएं हैं और वक्ष:स्थल में श्रीवत्स, लक्ष्मी के चिह्न है। सुनंद, नंद आदि पार्षद तथा चक्र आदि आयुध और पुष्टि, श्री, कीर्ति, माया और आठों सिद्धियां शरीर धारण कर भगवान की सेवा में तत्पर है। श्री कृष्ण-अर्जुन ने वहां पहुंचकर सिर झुका कर आदर से आत्मरूप अच्युत को प्रणाम किया। तब विभु भगवान ने कहा ‘हे नारायण और नर! मैंने अपने ही स्वरूप तुम लोगों को दिखाने के लिए इन ब्राह्मण के बालकों को यहां मंगवाया था। तुम्हारा कार्य हो गया। अब तुम शीघ्र यहां आ जाओ। तुम पूर्ण काम हो, मर्यादा पालन के लिए लोकसंग्रहार्थ ही धर्म का आचरण करते हो।’ तत्पश्चात श्रीकृष्णा अर्जुन ब्राह्मण-बालकों को लेकर लौट आये। द्वारका में पहुंचकर अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार ब्राह्मणों को उसके सब बालक दे दिये। अपने पुत्रों को पाकर बामण अत्यंत ही प्रसन्न और विस्मित हो गया। इस प्रकार भगवान ने अपने मित्र अर्जुन की प्रतिज्ञा पूर्ण की।
श्रीकृष्णा-अंक (Book code – 1184) – इस article में श्री कृष्ण और अर्जुन की मैत्री के विषय को बहुत ही छोटा करके घटना का जिक्र करा है। इस पुस्तक में श्रीकृष्ण से संबंधित सभी तथ्य समलित है। इनके विस्तृत परिचय एवं उनके द्वारा किए गए मानव के कार्य बारे में जानने के लिए “गीता प्रेस गोरखपुर” की पुस्तक कल्याण विशेषांक का श्रीकृष्णा-अंक (Book Code No – 1184) जो छठे वर्ष का विशेषांक है आप मंगा सकते हैं।